हँसी
ठहाकों के घर पर
सन्नाटे ठहरे हैं।
डूब रहे सब
सत्ता के
सैलाबी तेवर में
जंग छिड़ी
चौराहों पर
कुर्सी के चक्कर में
फूल
कली-किसलय पर भी
काँटों के पहरे हैं।
फटेहाल
फुटपाथों पर है
लोकतंत्र सोता
देख
गरीबी-बदहाली को
नहीं कोई रोता
धर्म
कर्म के अंग-अंग
क्षत-विक्षत चेहरे हैं।